Tuesday, January 25, 2011

बारिश

मैं उस गंध की कल्‍पना करने लगता हूँ जो बारिश होने पर धरती से उठती है
वह अलहदा सी गंध जो सूखी माटी को प्‍यार करती है
और ज़मीं अपने ताप की सुस्‍ती को उतारने लगती है
इन क्षणों में महसूसने लगता हूँ कि काश अपनी कभी ना खत्‍म होने वाली यात्रा में 
सारे सपनों से कागज की नाव को खेता हुआ 
मैं अब भी बच्‍चा होता
और उम्र के इन बीतते सालों ने मुझे जिस उदासी के नीचे ला छोड़ा है
उसे उतार फैंकता

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Another brilliant translation of my poem rain by my friend Pramod and I can't be thankful enough for this. It renders the poems beautiful and new images appear before me which makes it appear new and while the original stays it faints before this...Thanks Pramod ji.

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