कभी-कभी हम कुछ लोगों को जानना चाहते है, क्यों यह शायद हमें भी पता नहीं होता...शायद एक याद ही बसी रहती है जो कि होती नहीं ..शायद कहीं एक नाम सुना होगा जो बस जहन में भर जाता है और निकलता ही नहीं और उन पलों में आपके सामने आ जाता है जिन पलों में शायद आप उसके रु बरु नहीं होना चाहते...मगर ऐसा क्यों होता है हजारों नाम सुने लगते है पर उनमे शायद एक दो ही ऐसे होते होंगे जो ऐसे बैठ जाते है, कितना समय गुजरता होगा हमारे अन्दर इन्हें पैठ होने में पता नहीं, शायद कभी न जान पाऊं , कितने भरे स्थानों को, कितने यादों के बीच समेटती हुई, सरसराती हुई, अपना स्थान बना पाती हैं ये, यह भी शायद नहीं पता...मगर इतना जरुर होता है जब उनके कहीं अपने अन्दर होने का ज्ञान आपको होता है और आप हाथ बढ़ा कर उन तक पहुंचना चाहते है, वे होते ही नहीं ...कभी कबार उनका अस्तित्व ही मिट जाता है, या फिर वो वही मरीचिका हो जाते है जिन्होंने आखों में वे सपने डाले थे जिनका पीछा करते-करते कभी हमने अपने हाथ फैला दिए थे उस शून्य में जहाँ एक चाह थी उन हाथों के छुए जाने कि, उस आवाज़ कि सरसराने कि कानो तक, हवा में एक अभिन्न सा स्थान बनाते हुए, उसे टुकड़े-टुकड़े करते हुए मुझ तक पहुँचने कि, आखों में वह आकृति उभरने कि जो सपनो में केवल अलग रंग ही भर जाती थी, जिसके आकार और सीमाएं अनंत ही जान पड़ती थी और रंग अपने आप को बाटते-बाटते थक ही जाते थे.....अब फिर वही एकाकीपन है, वही शून्य, वही अनंतता निराकार जो मेरे कैनवास में फिर से सिमटने से मन करते है और शायद कभी नहीं सिमटेंगे....दूर से उसने संदेशा भेज दिया था दुनिया को कि वह अब जा रहा है , बरसों बीत गए उसे मेरे पास आने में ...कहते हैं ध्वनि तरंगे सिमट जाती है इसी वातावरण में निरंतर के लिए, पर जो उसने जाते-जाते कहा था दुनिया के लिए, क्या उसमे मै अपना रूप तराश पाऊंगा, क्या उसके चेहरे कि सीमा उभर पाएगी, क्या इन गूंजती आवाजों को तार-तार करने के बाद मै वो शब्द पिरो पाऊंगा जिनमे मै कभी नहीं था मगर जो मुझी तक हमेशा पहुंचना चाहती थी?
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