Tuesday, January 3, 2012

वही चेहरे

जहाँ भी जाता हुं वही चेहरे पाता हूँ 
किताबों के पन्नो से झांकते वो चेहरे 
जैसा कवियों ने लिखा, कहानिकारों ने 
गढ़ा और जिसे चित्रकारों ने रंगो से सराबोर
कर दिया 

अब बोर सी होने लगी हैं मेरी
आदतें,  भीड़ मे खोकर चेहरे तलाशने की
फिर हताशा मे एक प्रयत्नशील विष्मय गढ़ने की जो 
मेरी कवितायों मे नहीं ही आ पाई और रंगों के खेल 
मे खो गई 

सातवें मंजिले की उस बाल्कोनी पर कुछ शब्द 
डाले थे मैने सुखाने को, भीगते-भीगते अब उन्हे 
एक अरसा गुज़र चुका है, अबकी साल जो तुम आई 
तो तुमसे धूप का एक कतरा उधार मांग लुंगा जिसे 
मै बरसों पहले तुम्हारे कांधे की अलग्नी पर भूल आया था 
जब तुमने आखरी बार चांद उतारा था अपने कानो से 
और मेरे सारे रंग समेट लिए थे 

4 comments:

  1. सातवें मंजिले की उस बाल्कोनी पर कुछ शब्द
    डाले थे मैने सुखाने को, भीगते-भीगते अब उन्हे
    एक अरसा गुज़र चुका है, अबकी साल जो तुम आई
    तो तुमसे धूप का एक कतरा उधार मांग लुंगा जिसे
    मै बरसों पहले तुम्हारे कांधे की अलग्नी पर भूल आया था
    जब तुमने आखरी बार चांद उतारा था अपने कानो से
    और मेरे सारे रंग समेट लिए थे
    wah, wah wah...!!!

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  2. बहुत सुन्‍दर है.

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  3. "(मेरा सबसे बड़ी दुश्मन बोरियत जो ठहरी)"

    इंसानी जीवन एकाकी है, हमारी लड़ाई शब्दों और विचारों में साथ ढूँढने की रहती है...पर हम अधूरे लोग, पूरेपन से डरते हैं..कभी कभी अधूरेपन से डरने का ढोंग भी करते हैं..बहुत अच्छा लिखा है बाबा, एकदम लेखन प्रक्रिया और लेखन की वस्तु दोनों के भीतरी चरित्र पर..

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  4. शमशेरियत तारी हो रही है तेरी कविताओं पर। विश्वदृष्टि और काव्यदृष्टि के बीच समीकरण भी कुछ वैसा ही है।

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