Friday, December 30, 2011

कौन

वो कौन है जो वक्त कि अन्तिम कन्दरायों से आवाज लगा जाता?
छोड जाता एक सिसकी मन मे, सिमट जाता सुबह कि तरह एक
अन्गीनत भीड मे, चिपक कर मेज़ पर फिर खेलने लगता मेरी
कलम-दवात संग एक रंग का खेल, तेढ़ी-मेढ़ी लकीरें उभार देता
मेरी दीवारों पर और शब्द छोड जाता खिड्कियों पर, टपकती रहती
जहाँ निरन्तर एक सांस.

मै सोचता चलो सांस तो है, एक गरमी कि तरह उभार हि देगी एक
चेहरा. फेरा करता उन्गलियाँ नित् रोज़ रात्रि के अन्तिम प्रहर मे,
पर खिड्कियों के पाले थर-थराने लगते जब गुम हो जाती वो आवाज
एक दस्तक के साथ, बुला रही हो जैसे एक अबेध्य सुनसान शहर मे

हाथ थाम कर मेरा खींच लेती उन सुनसान गलियों मे जहाँ लगाता वह
चक्कर बार-बार लगातार, खोजती आंखें केवल किरनो का चक्कर हि सहेज
पाती जहाँ फिसला था मौन इतिहास मे कई बार

पर कोइ तो नही, हाथों पर छुअन फिर किसकी बाकी रह जाती?
साये का वह कोना क्यों निहारता जैसे अजनबी मै कोइ इस शहर मे?
शायद कोई नही, यह मै हि हूँ. दफ्न सपने, खामोश अभिव्यक्तियाँ तलाश्ता
गुम मुस्कुराहटओन मे. 

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