Tuesday, March 19, 2013

कुछ पल

कुछ पल अभी और
ठहरो, पिछली भूली
खामोशियों को अपने
इर्द-गिर्द शब्द बटोरने
दो, नए शब्द मत गढ़ो
अभी; बिखर जायेंगे,
बस इस खामोशी को
अपने आस- पास दायरा
बनाते देखो, पिछले कितने
शब्दों की रातें अभी उधार
है तुम पर 
उन्हें एक- एक कर
बस पिघलने दो,
उतरने दो इस रात में
अभी बस कुछ पल
खामोश रहो

3 comments:

  1. बहुत सुन्दर। ख़ास तौर पर आपका-हमारा पुराना संघर्ष: हम जो देखते हैं, सुनते हैं, महसूस करते हैं और समझने की कोशिश करते हैं- क्या उसको शब्दों के खांचे में बाँधना वाजिब है, या ज़रूरी है? कई शायरों ने जो कुछ कहा है-लिखा है- क्या आँखें बोल उठेंगी कभी? या स्पर्श? या दिल की कचोट? हमारी नज़र ने जो देखा, हमारी इन्द्रियों ने जो समझा- बिना शब्दों की मध्यस्थता के- (लॉस्ट इन ट्रांसलेशन?)

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