Friday, April 22, 2016

बचा हुआ सा कुछ

शब्द सीखा तुमसे ही 
मैंने, एक यकीन था 
उनके जादू पर।  
कैसे घर कर जाते 
थे शब्द जब कभी 
ख़ामोशी का दायरा 
बढ़ जाता। कभी 
हाथों के गीलेपन 
से उसे हम चुरा 
लेते, कभी धूप के 
नन्हे से टुकड़े से 
उधार मांग लेते और 
आदतन चाय की 
चुस्कियों में ज़ाया 
कर देते।  जो बचा 
रह जाता उसे कपड़ों 
में तह कर भूल 
जाते। 

बुरे दिनों की 
लत लगी नहीं थी 
उन दिनों तभी तो 
याद का किनारा 
कमजोर था, बह 
निकलता था नज़रें 
चुरा कर।  न जाने 
कितनी गलियों से 
गुज़रा हो, न जाने 
कितने घर डुबोएं  
हो।  कश्ती भी कागज़ 
की थी और बचने  की 
मोहलत किसे थी।  बस 
तैरना था उन दिनों 
तुम्हारी आँखों में।  

अब तुम नहीं हो 
तो जैसे कुछ टूट 
गया है।  एक बाढ़ 
आती है रोज़ , समय 
नहीं बताती, नहीं रुख।  
पर आती है रोज़ 
जब मैं नज़रें बचा 
यादों को सुखा रहा 
होता हूँ, जब पागलपन 
में कपड़ों को टांग 
कुछ शब्दों के पिघलने 
का इंतज़ार कर रहा 
होता हूँ। 

बाढ़ आती है, 
सब कुछ बिखर 
जाता है।  बचता है 
सन्नाटा और एक 
शब्द, खालीपन। 

Thursday, April 21, 2016

चले आओ, मत आओ

अब कहाँ उस मौसिकी के मौज़
पर तुम्हारी करवट और कहाँ
उन दिनों के गीत? कहाँ फुर्सत
के बोल साहिलों के रेत पर सिमटे
हुए? बस एक ये बूँद है और वो तुम्हारी
कभी न फूटती हुई हंसी. दोनों एक ही हैं
बस चिलमन के उस पार लिपटे साखों
से मेरे घर को भिगाती हुई, चले आओ
के ये बोल अब मेरे होठों को नहीं छूते,
अभी मत आओ मैं उन हर्फों को भूल
चूका हूँ।

Tuesday, April 19, 2016

जीवन एक यात्रा

मुझे आजकल ये एहसास होने लगा है, की अगर जीवन एक यात्रा है तो मै एक ऐसे ट्रेन में सफ़र कर रहा हूँ जो कब की छूट चुकी है। मैंने बड़ी कोशिस की थी उसे दौड़ कर पकड़ने की, यात्रा से कई दिनों पहले स्टेशन भी पहुँच गया था, मगर फिर भी ट्रेन छूट ही गयी और मै उस पर सफ़र करता चला गया। अभी भी करता ही जा रहा हूँ, स्टेशन कितने आये गए जो अपने नहीं लगे, जिन्हें कभी भी मैंने जाना नहीं था, कई बार उतरा उन पर। रात बिता दी, देखता रहा चाँद की रौशनी कैसे अपनी परछाई छोड़ जाती है इन सुने स्टेशन पर। अनगिनत गिलास चाय के पिए, वो चाय की ही प्यास तो थी जो उतार लाइ थी मुझे इस उजड़े सुनसान से स्टेशन पर। मै फिर बैठ गया इंतज़ार करने उस अगली गाडी का जिसे छूट ही जाना है, मगर ये गाड़ियाँ जाती कहाँ है, उन पर न नंबर होता है, न ठीकाना, फिर ये आखिर जाती कहाँ है। और ये लोग जो इसमें बैठे हैं, ये इतने खुश नज़र आते हैं , क्या इन्हें पता है वो किधर जा रहे हैं? क्या भटका हुआ केवल एक मैं ही हूँ? जब पुल पर गाडी सरसराती हुई निकल जाती है, एक गड-गड की आवाज़ जब पटरियों से होते हुए जब सामने वाले बर्थ से सिमटते हुए इस अँधेरे वातावरण की शान्ति को भिगो जाती है, अब कहीं उसकी प्रतिध्वनि लौट कर आती है मेरी कानों में। बगल की सीट पर बैठी हुई एक लड़की अंगड़ाई लेकर फिर से सो जाती है, उसे भी शायद पता है वह कहाँ जा रही है। इस प्रतिध्वनि से मै जाग जाता हूँ; जीवन का शायद एक और पुल पार हो गया जिसे मैंने कभी बनाया नहीं था। कौन बना जाता है ये पुल जिन पर हमें चलना ही होता है? जैसे ये रास्ते अपने आप ही चलते जाते हैं और हमें एक छूटने वाली गाडी में छोड़ जाते हैं? मैंने तो अपने पीछे के सभी पुल जला डाले थे, फिर भी इन खड खडाती हुई पटरियों में मुझे अपना ही राग सुनाई  दे जाता है, जैसे कोई है, आता है रोज़, घंटो बैठ जाता हो मेरे किनारे, मगर अपने होने का प्रतीक नहीं छोड़ता। मै रोज़ उन कागज़ के टुकड़े जो वो बिखेर जाता है उसे इक्कठा करता, नित समेट कर उन्हें रख देता, पानी का बर्तन छोड़ देता गर्म होने के लिए फिर बैठ कर उसका इंतज़ार करता रहता। वह रोज़ नहीं आती, चाय की गिलास वैसे ही भरी रह जाती, वैसे ही रोज़ टिकेट चेकर आकर टिकेट देख जाता और मुस्कुराकर कहता , आपको पहले भी कहीं देखा है? शायद आप हमेशा सफ़र पर ही रहते हैं? आप काम क्या करते हैं? जी, मैं? मैं हमेशा उसी ट्रेन में होता हूँ जो मुझसे छूट गयी हो। फिर ये किताबें? ये किताबें मेरी नहीं हैं, ये किसी की अमानत है वो छोड़ गयी थी कभी सफ़र में, कहा था फिर आकर कभी ले जायेगी। भैया ये गाडी इस स्टेशन पर नहीं रूकती? सर आप कौन सी गाडी में बैठ गए? वो इस गाडी से पहले ही कहीं दूर चली गयी ? फिर ये पुल कौन सा था , इतना विस्तार जैसे अपने भीतर कितनी सदियों का भार उठाये हुए? ये नदी कौन सी थी जो निरंतर बहे चली जा रही है अपने विस्मृति में? मै भी शायद कभी आया था उसके घाट  पर एक नाव बना कर बहा देने के लिए, उसमे एक ख़त और कितने ही सपने थे। पता नहीं उस नाव का क्या हुआ? कागज़ की नाव पर सपने चलते हैं बाबू? उस पर नाम धुला नहीं होगा, है न? किसी ने तो उसे पाकर अपने पास सहेज कर रख लिया होगा? या फिर निकल पड़ा होगा उस लड़की की खोज में जिसके नाम यह ख़त लिखा था मैंने? या फिर क्या उसने उसी तरह उसे छोड़ दिया होगा पिघलने के लिए? या फिर अभी भी वह बहे चले जा रही है, क्यूँ की उसे कोई उठाने वाला नहीं मिला? 


February 6, 2013. 

Wednesday, April 13, 2016

There is always a place for waiting

There is always a place for the waiting, patience might run its course and like a tired walk wait for its pause and sit under a shadowless tree unsheating itself bit by bit. But wait like a tireless crusader runs and sits awkward in silent moments when habit has been shed for the day. It never overplays monotony, remains its silent company turning into words unknown; a language crafted against it. Sometimes it sheds hope as a load that it can no longer carry and walks along the frail steps of an old woman whose freckles and the crumbling skin tells a story you will never hear. It parts company with the city sounds as they coalesce around the cup of tea you yearn for on nights of insomnia. It curates your diary as words fall off from their practiced writing. It tickles memory when the door is left ajar and the wind knocks on the window. You hear the purr of a cat and discard another day in your calendar feeling the breathlessness that borders on nausea. Images tumble around that you cannot capture in your faithful camera.

March 20, 2016.
8:15 pm

Monday, April 11, 2016

कोई आया था क्या?

कोई आया था क्या? नहीं? सफ़ेद सांझ में अपनी धमनियों का चलना सुन रहे हो तुम. क्या यह सही है? या फिर सब कुछ यही है? पता नहीं। पता होने के बावजूद भी कोई धमनियों का चलना कैसे रोक सकता है? एक अजीब विस्मय है, और उससे भी अजीब एक खोज।  रोज़ चलता हूँ, रोज़ नहीं मिलती।  फिर भी चलने की आदत का मैं क्या करूँ? सोचने की आदत का, याद की आदत का मैं क्या करूँ? शायद कुछ नहीं।  या फिर बहुत कुछ।  पर निर्णय की घडी अभी नहीं आई, या आई थी क्या और चली गयी ? मुझे तो बस इंतज़ार करना कहा गया था , बस इंतज़ार।  पर तुम इतने जड़ कबसे थे? तुमने तो सुना था रात को आते हुए, तुमने उसे सिमटते हुए भी देखा था, तुमने रात के अँधेरे कमरों में गुम हुए लोगों को भी महसूस किआ था, तुम देर तक कुकर की सीटियों को फ़ैल कर दीवारों पर चिपकते हुए भी देखा था, तुम वहां - वहां भी गए थे जहाँ पके खाने की सुगंध फ़ैल जाती है, तुमने चाय की प्याली में बैठे हुए पत्तियों को भी देखा था, तुम देर रात भटके हुए पंछियों के साथ भी भटके थे. तुमने सन्नाटे की दीवारों को घर करते भी देखा था, तुम वहीँ थे जब खालीपन अपनी जगह से थोड़ा सरक गया था।  उसने अपना नाम नहीं बताया था , पर तुमने कई बार दीवारों को पोछ कर कुछ मिटाना चाहा था, तुम अपने बिस्तर को बदल कर नयी चादर भी डाली थी, तुमने उस कप को भी तोड़ दिया था, और कई बार उस खाने की महक को भी भूलने की कोशिश की थी जो उस रोज़ तुम्हे आई थी. फिर भी कुछ बचा था जिसे तुम ढूंढ रहे थे।  क्या? 

Sunday, April 3, 2016

रात वैसे ही सरक रही है

कुछ टप-टप सुनाई दी फिर घुल गयी शोर में. मुझे लगा जैसे कोई आहिस्ता से आया मेरे एकांत में और हलके आहट से समा गया हो मौन में. धीरे जैसे कोई दरवाज़ा खुला, एक आधा निमंत्रण देकर छोड़ गया हो. जैसे कोई कह रहा हो अगर इस एकांत में भी तुम मुझे सुन पाये, अगर अभी भी कोई खाली जगह है जिसे तुम भर नहीं पाये तो चले आओ इस ओर. मैं देर तक सुनता रहा. खिड़की से एक सुनहरी हवा ने किवाड़ को आधा खोल दिआ था, और छन -छन कर कुछ टपक रहा था. मैंने सोचा रात है और बेमौसम की कोई बारिश। शायद वह भी खोई हुई है. पता नहीं की बरस जाना है या फिर गुज़र जाना। मैं आवाज़ के पीछे पीछे हो लिआ और पहुँच गया अपनी बालकनी पर. देखा आधी सड़क भीगी पड़ी है और रात वैसे ही सरक रही है जैसे मैंने उसे कल छोड़ा था. 

Love is not room of rumour

Play,
play on.
Trip on the shadow.
Break.

Sieve,
sieve the fragments.
Be residue.

Arrange,
arrange the empty spaces.
Disperse.

Return,
mark the endless distances.

Wait.
Longing is another knowing.

Anticipate not, be.
Let your pauses unfold.

Love is not a room of
rumours, a crack in the
dust, it peels not
like rust. You cannot
wipe yourself clean.

Its the recurring wave that
fills and empties you
at the same time. It leaves
a mark on the stone.

The script takes long deciphering.