Monday, April 11, 2016

कोई आया था क्या?

कोई आया था क्या? नहीं? सफ़ेद सांझ में अपनी धमनियों का चलना सुन रहे हो तुम. क्या यह सही है? या फिर सब कुछ यही है? पता नहीं। पता होने के बावजूद भी कोई धमनियों का चलना कैसे रोक सकता है? एक अजीब विस्मय है, और उससे भी अजीब एक खोज।  रोज़ चलता हूँ, रोज़ नहीं मिलती।  फिर भी चलने की आदत का मैं क्या करूँ? सोचने की आदत का, याद की आदत का मैं क्या करूँ? शायद कुछ नहीं।  या फिर बहुत कुछ।  पर निर्णय की घडी अभी नहीं आई, या आई थी क्या और चली गयी ? मुझे तो बस इंतज़ार करना कहा गया था , बस इंतज़ार।  पर तुम इतने जड़ कबसे थे? तुमने तो सुना था रात को आते हुए, तुमने उसे सिमटते हुए भी देखा था, तुमने रात के अँधेरे कमरों में गुम हुए लोगों को भी महसूस किआ था, तुम देर तक कुकर की सीटियों को फ़ैल कर दीवारों पर चिपकते हुए भी देखा था, तुम वहां - वहां भी गए थे जहाँ पके खाने की सुगंध फ़ैल जाती है, तुमने चाय की प्याली में बैठे हुए पत्तियों को भी देखा था, तुम देर रात भटके हुए पंछियों के साथ भी भटके थे. तुमने सन्नाटे की दीवारों को घर करते भी देखा था, तुम वहीँ थे जब खालीपन अपनी जगह से थोड़ा सरक गया था।  उसने अपना नाम नहीं बताया था , पर तुमने कई बार दीवारों को पोछ कर कुछ मिटाना चाहा था, तुम अपने बिस्तर को बदल कर नयी चादर भी डाली थी, तुमने उस कप को भी तोड़ दिया था, और कई बार उस खाने की महक को भी भूलने की कोशिश की थी जो उस रोज़ तुम्हे आई थी. फिर भी कुछ बचा था जिसे तुम ढूंढ रहे थे।  क्या? 

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