Friday, April 22, 2016

बचा हुआ सा कुछ

शब्द सीखा तुमसे ही 
मैंने, एक यकीन था 
उनके जादू पर।  
कैसे घर कर जाते 
थे शब्द जब कभी 
ख़ामोशी का दायरा 
बढ़ जाता। कभी 
हाथों के गीलेपन 
से उसे हम चुरा 
लेते, कभी धूप के 
नन्हे से टुकड़े से 
उधार मांग लेते और 
आदतन चाय की 
चुस्कियों में ज़ाया 
कर देते।  जो बचा 
रह जाता उसे कपड़ों 
में तह कर भूल 
जाते। 

बुरे दिनों की 
लत लगी नहीं थी 
उन दिनों तभी तो 
याद का किनारा 
कमजोर था, बह 
निकलता था नज़रें 
चुरा कर।  न जाने 
कितनी गलियों से 
गुज़रा हो, न जाने 
कितने घर डुबोएं  
हो।  कश्ती भी कागज़ 
की थी और बचने  की 
मोहलत किसे थी।  बस 
तैरना था उन दिनों 
तुम्हारी आँखों में।  

अब तुम नहीं हो 
तो जैसे कुछ टूट 
गया है।  एक बाढ़ 
आती है रोज़ , समय 
नहीं बताती, नहीं रुख।  
पर आती है रोज़ 
जब मैं नज़रें बचा 
यादों को सुखा रहा 
होता हूँ, जब पागलपन 
में कपड़ों को टांग 
कुछ शब्दों के पिघलने 
का इंतज़ार कर रहा 
होता हूँ। 

बाढ़ आती है, 
सब कुछ बिखर 
जाता है।  बचता है 
सन्नाटा और एक 
शब्द, खालीपन। 

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