आज कुछ अटका हुआ है दिन
छन कर आया हो जैसे किसी
उदासी से, आज तो कहीं नहीं
गया मैं, न किसी से बात ही की।
माज़ी तो नहीं जो दबे पाँव सांझ
की करवट ओढ़े मेरी खिड़की
पर अटका पड़ा है?
अब मुझे पूछ ही लेना चाहिए
उससे जो गए बरस छोड़ गयी
क्या वो जाते-जाते अपने सपनों में
आया वह आदमी भी ले गयी
जिसे कभी अकेलेपन में उसने
गढ़ा था?
मैं वो इंसान तो कभी नहीं
बन पाया, पर एक टीस
सी रह गयी न बन पाने
की।
आज मैं कुछ और हूँ,
पर हूँ उसी सपने का आदमी।
छन कर आया हो जैसे किसी
उदासी से, आज तो कहीं नहीं
गया मैं, न किसी से बात ही की।
माज़ी तो नहीं जो दबे पाँव सांझ
की करवट ओढ़े मेरी खिड़की
पर अटका पड़ा है?
अब मुझे पूछ ही लेना चाहिए
उससे जो गए बरस छोड़ गयी
क्या वो जाते-जाते अपने सपनों में
आया वह आदमी भी ले गयी
जिसे कभी अकेलेपन में उसने
गढ़ा था?
मैं वो इंसान तो कभी नहीं
बन पाया, पर एक टीस
सी रह गयी न बन पाने
की।
आज मैं कुछ और हूँ,
पर हूँ उसी सपने का आदमी।
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