उन दरख्तों पर आवाज़ के सिवा कुछ
भी नहीं, आवाज़ भी एक सीमा है जो बाँध
लेती है इंसानों को, कविता उससे कभी जूझती
कभी झुंझलाती, कभी नाराज़ होकर उस पार धकेल
देती जिस पार कहीं कोई शाम का सन्नाटा या भोर
का शांत छुपा होता, जहाँ कहीं उनका वो अस्तित्व
होता जहाँ वो कभी नहीं होते , उन मानवी प्रतिबिम्बों
का जो बिखरे आईने से हमे देख तो जाते बेचैन
नहीं करते
तुम चलना किसी शाम, दिन को टोकरी में बाँध कर
एक कोने में छोड़ आना, खिडकियों पर से उदासी को
समेट बंद कर देना किताबों में, रौशन दानों में सुबह को
भटकने देना, आ जाना खाली हाथ, उन दरख्तों पर जहाँ
आवाजों के सिवा कुछ भी नहीं
शहर जब थक कर सो जाता है, ये सारे आवाज़ कई मील
पैदल चल कर यहाँ आते हैं पहचानने एक दुसरे को, कहीं
कोई खोया हुआ उसमे चेहरा ढूँढ़ते हैं, कहीं खोई हुई खामोशी
तलाशते हैं, आ जाना तुम आवाजों के उस पार जहाँ केवल
आवजों का खेल रोज़ होता है
हम बैठेंगे हाथों की छुअन से दूर, बस महसूस करते उसे
अपनी यादों में, कुछ बोल के परे उन आवाजों में अपने
यादों में नहीं तलाशते, कविता को इस शान्ति में अपने चारों
ओर एक दायरा बनाते देखते, फिर उस नदी में कविता को
बहा देंगे