सुबह- सुबह इन सड़कों पर ये कौन
आवारा धुआं फ़ैल रहा है, एक संकरी
लकीर बनाता हुआ, अपने धुन में मस्त
किस राह चल दिया है
रुक कर अपनी साँसों को कभी सहेजता
पल भर के लिए थम जाता अधखुले जंगले
पर और झाँक जाता घरों में बैठे खामोशी को
अल सुबह यही खेल दोहराता फिर थक कर बैठ
जाता छत पर लटके बांसी पपड़ियों पर
इन्हीं पलों में स्मृति कि दीवार कुछ कमज़ोर
हो झरने लगती, उसके टुकड़े बिखर जाते
बंद रौशनदानो में, कपड़ों में एक अलसाई
गंध सिमटने लगती और एक उबास सी
भर जाती अलमारियों में
नज़र बचा कर कोई एक नन्हा धूप
का टुकड़ा डूबता रहता तुम्हारे काँधे
कि अलगनी पर