Wednesday, April 13, 2011

बर्फ के टुकड़े

एक लम्हा ही
उस बर्फ के टुकड़े में अटका पड़ा था
कभी जिसे कुरेद कुरेद कर
हम अपने ग्‍लास भरा करते थे

हाँ लम्हा ही तो था वो
जिसमें पहली बारिश में
हमेशा उन बर्फ के टुकडों  का ही इंतज़ार रहता 

यही एक खेल था
जिसमें बाबूजी मेरे साथ शरीक हो जाते 
एक आँख में इच्छा थी,
एक में अजीब सा सूनापन
और एक फासला  मजबूरी और जिज्ञासा के बीच 

आज जब तुम आई 
वही बरसात का इंतजार है 
वही सूखी धरती अपने ताप से फिर पिघला देना चाहती है 

तुम हाथों में गिलास लेकर खड़ी हो जाती
एक टकटकी के साथ मुझे देखती
उस परदे के पीछे से
जैसे ये बीत गए साल केवल एक पटाक्षेप ही है 

तुम्हारे लिए समय कितना स्थिर है 
ठहरा है अभी भी
उन दो टुकड़ों के बीच
मगर फासलों में बँटा इंसान 
कितने ही खंडित क्षणों को समेट चुका होता है

2 comments:

  1. वाह, बहुत खूब.

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  2. अद्भुत! मनोहरजी आप अपने अन्दर हिंदी पद्य की न जाने कितनी संभावनाएं लेकर बैठे हैं. तीसरे और छठे छंद पूरी कविता की सुन्दरता की पराकाष्ठ है :) मुझे तो बहुत अच्छे लगे

    hats off man!

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