एक लम्हा ही
उस बर्फ के टुकड़े में अटका पड़ा था
कभी जिसे कुरेद कुरेद कर
हम अपने ग्लास भरा करते थे
कितने ही खंडित क्षणों को समेट चुका होता है
उस बर्फ के टुकड़े में अटका पड़ा था
कभी जिसे कुरेद कुरेद कर
हम अपने ग्लास भरा करते थे
हाँ लम्हा ही तो था वो
जिसमें पहली बारिश में हमेशा उन बर्फ के टुकडों का ही इंतज़ार रहता
यही एक खेल था
जिसमें बाबूजी मेरे साथ शरीक हो जाते एक आँख में इच्छा थी,
एक में अजीब सा सूनापन
और एक फासला मजबूरी और जिज्ञासा के बीच
एक में अजीब सा सूनापन
और एक फासला मजबूरी और जिज्ञासा के बीच
आज जब तुम आई
वही बरसात का इंतजार है
वही सूखी धरती अपने ताप से फिर पिघला देना चाहती है
तुम हाथों में गिलास लेकर खड़ी हो जाती
एक टकटकी के साथ मुझे देखती
उस परदे के पीछे से
जैसे ये बीत गए साल केवल एक पटाक्षेप ही है
एक टकटकी के साथ मुझे देखती
उस परदे के पीछे से
जैसे ये बीत गए साल केवल एक पटाक्षेप ही है
तुम्हारे लिए समय कितना स्थिर है
ठहरा है अभी भी
उन दो टुकड़ों के बीच
मगर फासलों में बँटा इंसान उन दो टुकड़ों के बीच
वाह, बहुत खूब.
ReplyDeleteअद्भुत! मनोहरजी आप अपने अन्दर हिंदी पद्य की न जाने कितनी संभावनाएं लेकर बैठे हैं. तीसरे और छठे छंद पूरी कविता की सुन्दरता की पराकाष्ठ है :) मुझे तो बहुत अच्छे लगे
ReplyDeletehats off man!