Sunday, November 4, 2012

आज पूरे दिन


आज पूरे दिन पागलों की तरह पढता
रहा, शब्दों ने जैसे घेर लिया था मुझे,
वो मेरे भीतर पिघलते रहे और मैं
उनसे कहीं दूर डूबता रहा, जब पार
न पाया शब्दों से तो आते-जाते आवाजों
से दोस्ती कर ली, उन्हें अपने भीतर
सिमटता देख ही रहा था की कहीं दस्तक
सी हुई। सामने तुम खड़ी थी, मै निर्वाक
तुम्हे देखता रहा, तुम हँसी, शब्दों को सोफे
के आस-पास टूटने दिया फिर पूछ ही लिया-
इतने दिनों बाद आई हूँ, बैठने को नहीं कहोगे?
वो कॉफ़ी जिसकी बातें तुम करते हो, वो नहीं
पिलाओगे? मैंने सोफे पर ध्यान दिया
वह तो कब के भरे हुए थे शब्दों से
तुम्हारे रंगों की छटा अभी तक फैली
हुई थी, कहीं कोई रिक्त स्थान न पाकर
मैंने कहा आज खड़े ही रहो मैं तुम्हे
बताना चाहता हूँ ये कॉफ़ी कैसे बनता हूँ
मैं। तुम कब चुप-चाप इन्ही बातों में
गायब हो गयी पता ही न चला। अब फिर
बैठा हूँ मैं इन किताबों के बीच यही
सोचता की वो बातें कहीं इन्हीं किताबों
से चुराई तो नहीं जिसमे आज तुम मुझे
ढाल गयी थी कभी न मिलने के लिए?

No comments:

Post a Comment