Tuesday, April 23, 2013

Untitled

मैं कोई एक पल तो नहीं
जिसे तुम उकेर सको अपनी
डायरी के पन्नों में, मैं क्षितिज
पर अस्त होता हुआ सूर्य भी नहीं
जो हर रोज़ अस्त हो कर अपनी
समानता में भी भिन्न है जिसे
रोज़ तस्वीर में कैद कर कैनवास
पर उतारा जा सके

मैं तो हर एकांत में एक शब्द
का नकार हूँ, अगर सुन सको
तुम उसे तो ये अपने खालीपन
का आवरण उतार देना। तुम्हे
पूर्ण करना न मेरी नियति है
न कोशिश, जो पूर्ण है वह तो
कब का बिछड़ गया है और
जिसे तुम अपूर्ण जान चुकी
हो वह केवल सडकों पर
भटकता समय है।

इन सबमे कहाँ पा सकोगी
तुम मुझे, इनमे मैं कहाँ देख
पाऊंगा तुम्हे, रात
के ढेर को बांटती तुम्हारी
आखों मे एक स्पर्श
सा है ये जीवन, चलो इसे
विसर्जित कर दें इस पल
उस बहाव की फांकों में
जो निरंतर तुमको
छू  कर मुझसे दूर
कहीं बिखर जाती है

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