Wednesday, May 31, 2017

No longer at ease in waiting

The colours of spring
are thinner than the
colours of sorrow,
in the uneven endings
of the day I taste my
retreat.

No longer at ease in
waiting, I set traps for
my fears.

April 24, 2017

Saturday, May 27, 2017

कितने मायने खो गए ?

कितने ही मायने हैं जो खो गए हैं, अजनबी लगता है सब कुछ, अपना अतीत भी, जैसे में नहीं हूं जो वह सब जिया है, पर जो बचा है, किसी residue जैसा वह जाता ही नहीं, छूटता ही नहीं, आस पास जैसे किसी गोल बना कर रम गया हो, अंदर अंदर ही रिस रहा हो, बिना अपनी कोई पहचान दिए बस खामोश बैठा हो पर मेरे हर किये में इंगित हो जाता हो। एक मचलन है मन मे जो जाती नहीं, कुछ न लिखा जाता है, न सोचा। कितना कुछ तो बिता है, कितना कुछ किया भी पर फिर भी सब अधूरा ही लगता है, कुछ है जो इन सबमे छूट ही जाता है। क्यों कर रहा हूँ यह सब, क्या मिल जाएगा? अपनी धुरी भी नहीं जानता पर चक्कर लगाए जा रहा हूँ । पहचान केवल जो बचती है वह मुझ जैसा तो है पर शायद मैं नहीं, या मैं ही हूँ अपने अधूरेपन में। बेचैनी है निकल जाने की पर इस बार और धंसता चला गया, अंदर बहुत ही अंदर, बस मन करता है छोड़ दे मुझे, मुझी में, पर मै ही दौड़ पड़ता हू उन्हें पास बुलाने जो कबके खो गए हैं, कुछ भी तो नही बचा उनका। मैं उनके साथ भी अधूरा और खुद में भी बस बेचैन । अपनी ही सीमा लाँघ न पाया, अपनी ही कृति में कैद मैं कब खुद का अतीत बन गया पता ही न चला, कितना ही अंतर आ गया मेरे एहसास और मेरे शब्द में, कब उनकी खाई में मैं दब गया पता ही न चला। कई खाई होते हैं खुद के जिन्हें हम खुद देख नही पाते बस धँसते चले जाते हैं, अंदर कहीं अंदर, रास्ता कोई भी नहीं, जो भी है अधूरा, उसमे अपने मायने कहाँ? जब आप गिर रहे होते हैं आप को नही पता चलता आप कितने नीचे गिर गए, इसी लिए शायद कोई भी संभलना अधिक ही लगता है, आप सोचते है आप बच गए, पर जो खो गया अंदर कहीं, खुद का कहीं उसे शायद बहुत बाद में ही जान पाते हैं या कभी नहीं? 

Friday, May 12, 2017

विस्तार का भ्रम

विस्तार का भ्रम बस है, 
सिमटा मैं भी हूँ 
कभी आधे बासी शब्दों 
में , कभी पुरानी आदत में।  

अंत की जो पंक्ति है 
उस तक नहीं पहुँच 
पाता, फिसल जाता 
हूँ फुर्सत में चुराए 
किसी एक पल में।  

ढूंढनी पड़ती है उस वक़्त 
कोई खोई हुई चाह, कोई 
बेतरतीब सा सपना।

मलिन,पर खोया हुआ
मन।