विस्तार का भ्रम बस है,
सिमटा मैं भी हूँ
कभी आधे बासी शब्दों
में , कभी पुरानी आदत में।
अंत की जो पंक्ति है
उस तक नहीं पहुँच
पाता, फिसल जाता
हूँ फुर्सत में चुराए
किसी एक पल में।
ढूंढनी पड़ती है उस वक़्त
कोई खोई हुई चाह, कोई
बेतरतीब सा सपना।
मलिन,पर खोया हुआ
मन।
मलिन,पर खोया हुआ
मन।
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