हमारे मित्र जिया खान साहब ने एक मिश्रा पेश किया है मिस्र के ऊपर इस नज़्म में कुछ फैज़ की रवानगी भी है और कुछ उनकी अपनी दीवानगी भी. मुझे नहीं पता उन्होंने पहले कुछ लिखा भी हो, मगर मेरे ख्याल में ये उनकी पहली नज़्म है, जिसे मै अपने ब्लॉग पर पेश करना चाहता हू, उन लोगो के लिए जो अपने जीवन के लिए संघर्ष कर रहे है, जो स्वतंत्रता के लिए संघर्ष कर रहे है और जिया भाई की ये नज़्म भी उसी की तरफ हमारा ध्यान आकर्षित करती है. क्या हम अपने घरो में चिराग नहीं जलाएंगे, क्या उनके घरो के चिराग से ही खुश हो जायेंगे...क्या मिश्र एक होगा या फिर अनेक मिश्र अभी होने बाकी है..यही सवाल हम पूछते है. पेश है उनकी ये नज़्म.....
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क्या मुमकिन है के जो लाज़िम है?
तुम कौन सा मंज़र देखोगे ?
ऐ अहले शिफा, ऐ महदूद-ए-हरम
औरों की शहादत तशरीह कर
तुम खूब तमाशा देखोगे.
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ये ज़ुल्मों सितम के कूहे गिरां
क्या रूई की तरह उड़ जायेंगे?
खुशफहमी है दिल जोई है
कल वक़्त-ऐ-सुबह बतलायेंगे
कल खुदगर्जी की, ख़ामोशी की
तहरीर चलायी जाएगी
लालच और मुनाफे की
ज़ंजीर बनाई जाईगी
जो मह्कूमों के पाओं में
तुम खुद पहना कर आओगे
फिर तर्क-e-सितम कानूनों के
मशवरे बनाये जायेंगे;
जो समझ गए सो समझ गए
कुछ खामोश कराये जायेंगे!
जो अब भी मिस्र का आधा मिसरा है
कल आशार तुम्हारे झुटलायेंगें
कुछ तख्ह्त गिराए जाते हैं
कुछ ताज उच्छाले जाते हैं
फिर अम्रीका का हिकमत से
कुछ इस्रेल की चाहत से
मेमार कराये जाते हैं
और अगर ज़रूरत आन पड़ी तो
अक़ल-ऐ-लौह से UN के
इराक़ बनाये जाते हैं
जब मिस्र का मोमिन लड़ता था
तब हिंद का दहका पिटता था
तुम्हें उनकी शहादत खूब लगी
पर अपनी सदाक़त भूल गए
जब तक न गुल-ए-ताहीरी को
हर बाघ का बुलबुल हासिल हो;
जब तक न नारे जुम्बिश को
हर मुल्क की बेदारी हासिल हो;
जब तक न मिस्र की हलचल से
दुनिया का समंदर उमड़ेगा
जब तक न कल्बे सियाह ख़ामोशी से
इन्साफ की चीखें फूटेगी
बस नाम रहेगा हल्ला का
जो तब भी था और अब भी है
तो क्या मुमकिन है की जो लाजिम है
तुम वो ही सवेरा देखोगे?
जब सर्द रगों में आशिक़ के
एहसास रवां हो जाएगी
जब इश्क का मतलब बदलेगा
क़ुरबानी वफ़ा हो जाएगी
जब तनहा मिस्र के शम्मे को
हर मुल्क का बाज़ू थामे गा
मुमकिन है की तुम भी देखोगे
वो दिन का जिस का वादा है
जो लाजिम भी हो मुमकिन भी
Ziauddin Khan