Friday, January 18, 2013

अधूरी कविता 2

सारी रात तुम्हे अपनी कविताओं 
में ढूढता रहा, पाई आधी कहानियां 
तुम्हारे बिखेरे हुए आधे रंग, और 
कितने चेहरों में छिपा एक धूमिल 
होता एक चेहरा, सभी टुकड़ों को 
सहेजा मैंने पर कहीं बन न पाई 
तुम्हारी आकृति।
 इस कृति में, इस समय में शायद कभी 
पा न सकूँ तुम्हेजितना भी पाया 
 खुद को तुम्हारे समीप उतनी ही दूर हो
 जाती तुम्हारी आकृति। 
अब इस कृति से दूर, तुमसे दूर 
मैं ले जाना चाहता हूँ खुद को 
शायद इसी में मिल जाए तुम्हारी 
आकृति और कर दूँ इसे अंत; 
ये सूना अधूरा जीवन। 

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