Friday, June 2, 2017

मैंने उसको जाते हुए नहीं देखा

एक चिड़िया खिड़की के दूर उस पार बेलों से झूलती हुई उड़ गयी , बच गयी केवल हवा में लहराती हुयी साखें, मैंने चिड़िया को नहीं देखा पर अक्सर बेलों को लहराते देखा है. जिंदगी रोज़ मर्रा में भी पायी जा सकती है शायद। पर कुछ एकांत सा है जो बच जाता है, पसरा हो जैसे उसके जाने में एक आदत की तरह।  मैंने उसको जाते नहीं देखा पर एकांत को देखा , खाली कमरों में अटके मौन को देखा, मौन में उभरे हुए डर को देखा है, और देखा है उस चीख को जो निकल कर खुद में गुम हो जाती है जिसकी कोई परछाई नहीं होती।  मैंने परछाई को देखा है पर कभी परछाई और यथार्थ की दुरी तय नहीं कर पाया, मन कई बार हुआ की आगे हाथ फैला कर उसे खींच लू अपने पास जो सरकता जा रहा है धीरे-धीरे , क्षितिज में विलीन होता जा रहा है।  जब एक ध्वनि बन कर उसकी आवाज़ फ़ैल रही होती है मन उसे ही ढूंढ रहा होता है कहीं दूर , मैंने उसको जाते नहीं देखा, पर देखा उन बूंदों को जो फिसल कर लुढ़क जाती है पीछे छोड़ती कोई काई और उम्र भर की फिसलन। शायद मैंने पानी को उसके बहाव में जाना, उसके विस्तार में समझा।  ठहराव की सीमा में भी एक छोर है जो मेरा नहीं है, जिंदगी उसी में रेंगती हुई कोई रेल है जो बिना वजह स्टेशन पर रुक जाती है।  मैंने उसको जाते नहीं देखा , पर ठहराव को देखा है किसी के घिरे हुए मौन में जो किसी मुसाफिर की साँसों में और गहराता है।  मैंने उसको जाते हुए नहीं देखा पर रोका भी नहीं।  

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