Saturday, March 19, 2011

परतें

मुझे कभी शब्दों का साथ नहीं मिला
जैसे विरासत में मिलती हो वो पोथियाँ
जिस पर समय अपने भूलने की परत छोड़ जाता
ना ही मिलीं  वो लोरियां
जिसमे नींद के अंतिम प्रहर का इंतज़ार करते करते 
शब्द थक कर खुदबखुद सो जाते
  
बस मिली एक खामोशी 
एक अविश्वास में बैठी इंसानी परवाज़  
भीड़ में सुनी पड़ती सड़के
और ऊंचे होते  मकानों में
कुछ उखड़े हुए लोग
 
मिला एक साथ अधूरा सा, एक गहराता शून्य
और सपनों से पथराई हजारों आखें
खून में डूबे हुए कुछ हाथ
और अँधेरे का एक वीभत्स नाच
 
भाषा की अंतिम गलियों तक सोयी
एक विरक्ति भी  मिली
एक अभिन्न सी छुअन
जैसे सदियों चलता हो
लुका-छिपी का खेल
जिसमे निरंतर बसा एक डर
अपने पकडे जाने का

जिसमे धीरे धीरे उधड़ती परतें
एक उधार मांगे  जीवन का एहसास ही
छोड़ जाती थीं

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