क्या कल्पना कि उड़ान मुझे भी बेध कर अपने आपको मुक्त कर पाएगी?
या फिर एक खामोश उदासी का सत्य हि मुंह बाए खडा रहेगा
निर्लिप्त आकाश गंगाओं के असीम विस्तार में?
क्या स्वप्न की उस घड़ी मे कोइ न होगा
जब टुकड़े चुन-चुन कर आईना एक चेहरा उभार रहा होगा?
क्या यह अन्तिम रहस्य की शिला भी उजड जाएगी
अपने अस्तित्व को जानने से पहले?
:)
ReplyDelete