Sunday, March 6, 2011

शब्द और रंग

वो जब भी पास बैठती एक
साया अक्सर ही छोड़ जाती
और तैरती रौशनी में वो
साये  कुछ धुंद की तरह  छटक जाते

मै हमेशा सोचता  उसे एक  ख़त लिखूंगा
 स्याही उस साये  से ही  मांगूंगा
 मुझे पता है वो मना  कर देगी

 उसे मै बहलाऊंगा
 पुचकार कर  एक नाम दूंगा 
वो अड़ी रहेगी मेरी मेज पर चिपके हुए
घंटो निहारती हुए मेरे टेबल लैम्प को
 फिर घंटो तक चलता
रहेगा शब्द और रंग का
सिलसिला

वह रंगों में खोयी रहती
मेरे कैनवास के कोने पर  धीरे धीरे पसरा करती
 ब्रुश से आख मिचोली खेलती 
और अक्सर ही एक तस्वीर उधार दे जाती

मै शब्दों में डूबा रहता
उसकी एक एक नरमी
को कैद करता रहता
उस  कविता में जो
अभी लिखी  जानी  थी

शब्द और रंग का ऐसा मेल
शायद प्यार नहीं कुछ और ही
था

3 comments:

  1. वाह! बहुत सुन्‍दर.

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  2. mera comment delete kyun kiya gaya...hain?!!

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  3. tumne is post par comment hi nahi kiya tha...you commented on the other post "Lakeeren" and your comment is still available there..go and check please..

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