Tuesday, June 20, 2017

From where will you return?

Always shy and lost to the world of people, nowhere does a conversation begin in silence. Anxious to the next step, untangling cobwebs of time, actions are mute. Furies reside unabated in the next move, swirling around, searching for patience. The breath is hard, somewhere the cold eye of the passerby pierces through the guilt of the yet done. Hold the creases of the passing air, hold it tight, see it tumbling down deep in the lungs. Release. But only a vacuum appears, an absence, where running away is not an option. You return to the same place, guilty, tired, admonitions ringing in your head, punished several time over, brutalised by your own hands. Erase the marks of your fingers, the disappearing edges in the sand, the depression in the earth. All accepted with impressions deep. A fall so deep that echoes last in the dustbins littered with evidence of your guilt that trace your path to the peace long lost. From where will you return?

Friday, June 2, 2017

मैंने उसको जाते हुए नहीं देखा

एक चिड़िया खिड़की के दूर उस पार बेलों से झूलती हुई उड़ गयी , बच गयी केवल हवा में लहराती हुयी साखें, मैंने चिड़िया को नहीं देखा पर अक्सर बेलों को लहराते देखा है. जिंदगी रोज़ मर्रा में भी पायी जा सकती है शायद। पर कुछ एकांत सा है जो बच जाता है, पसरा हो जैसे उसके जाने में एक आदत की तरह।  मैंने उसको जाते नहीं देखा पर एकांत को देखा , खाली कमरों में अटके मौन को देखा, मौन में उभरे हुए डर को देखा है, और देखा है उस चीख को जो निकल कर खुद में गुम हो जाती है जिसकी कोई परछाई नहीं होती।  मैंने परछाई को देखा है पर कभी परछाई और यथार्थ की दुरी तय नहीं कर पाया, मन कई बार हुआ की आगे हाथ फैला कर उसे खींच लू अपने पास जो सरकता जा रहा है धीरे-धीरे , क्षितिज में विलीन होता जा रहा है।  जब एक ध्वनि बन कर उसकी आवाज़ फ़ैल रही होती है मन उसे ही ढूंढ रहा होता है कहीं दूर , मैंने उसको जाते नहीं देखा, पर देखा उन बूंदों को जो फिसल कर लुढ़क जाती है पीछे छोड़ती कोई काई और उम्र भर की फिसलन। शायद मैंने पानी को उसके बहाव में जाना, उसके विस्तार में समझा।  ठहराव की सीमा में भी एक छोर है जो मेरा नहीं है, जिंदगी उसी में रेंगती हुई कोई रेल है जो बिना वजह स्टेशन पर रुक जाती है।  मैंने उसको जाते नहीं देखा , पर ठहराव को देखा है किसी के घिरे हुए मौन में जो किसी मुसाफिर की साँसों में और गहराता है।  मैंने उसको जाते हुए नहीं देखा पर रोका भी नहीं।  

Thursday, June 1, 2017

Muses of a forgotten summer

A stir in the winds, 
ashen sky: 
summer nightfall.

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Dust on the door mat, 
a scattered table: 
departures. 

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Scattered clouds, 
fainting sound of temple bells: 
a summer evening quiet. 

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A stir in the shadows
stabs the perfect quiet: 
a lonely evening. 

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Birds flutter across the grey sky, 
a leaf surrenders to the wind: 
an exile of summer. 

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A dissolving sunset, 
a tinge of stolen orange: 
sparrows announce the summer. 

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In the warm summer, 
scent of rain: 
anticipations bloom. 

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A bird painted on a grey sky, 
cacophony on the streets: 
a lost shadow. 

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Where is home? 
come plant my shadow, 
my roots grow in emptiness. 

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Crowded stations, 
a couple sipping emptiness
between cups of coffee: 
hibernations of a forgotten winter. 



2/5/2016

Wednesday, May 31, 2017

No longer at ease in waiting

The colours of spring
are thinner than the
colours of sorrow,
in the uneven endings
of the day I taste my
retreat.

No longer at ease in
waiting, I set traps for
my fears.

April 24, 2017

Saturday, May 27, 2017

कितने मायने खो गए ?

कितने ही मायने हैं जो खो गए हैं, अजनबी लगता है सब कुछ, अपना अतीत भी, जैसे में नहीं हूं जो वह सब जिया है, पर जो बचा है, किसी residue जैसा वह जाता ही नहीं, छूटता ही नहीं, आस पास जैसे किसी गोल बना कर रम गया हो, अंदर अंदर ही रिस रहा हो, बिना अपनी कोई पहचान दिए बस खामोश बैठा हो पर मेरे हर किये में इंगित हो जाता हो। एक मचलन है मन मे जो जाती नहीं, कुछ न लिखा जाता है, न सोचा। कितना कुछ तो बिता है, कितना कुछ किया भी पर फिर भी सब अधूरा ही लगता है, कुछ है जो इन सबमे छूट ही जाता है। क्यों कर रहा हूँ यह सब, क्या मिल जाएगा? अपनी धुरी भी नहीं जानता पर चक्कर लगाए जा रहा हूँ । पहचान केवल जो बचती है वह मुझ जैसा तो है पर शायद मैं नहीं, या मैं ही हूँ अपने अधूरेपन में। बेचैनी है निकल जाने की पर इस बार और धंसता चला गया, अंदर बहुत ही अंदर, बस मन करता है छोड़ दे मुझे, मुझी में, पर मै ही दौड़ पड़ता हू उन्हें पास बुलाने जो कबके खो गए हैं, कुछ भी तो नही बचा उनका। मैं उनके साथ भी अधूरा और खुद में भी बस बेचैन । अपनी ही सीमा लाँघ न पाया, अपनी ही कृति में कैद मैं कब खुद का अतीत बन गया पता ही न चला, कितना ही अंतर आ गया मेरे एहसास और मेरे शब्द में, कब उनकी खाई में मैं दब गया पता ही न चला। कई खाई होते हैं खुद के जिन्हें हम खुद देख नही पाते बस धँसते चले जाते हैं, अंदर कहीं अंदर, रास्ता कोई भी नहीं, जो भी है अधूरा, उसमे अपने मायने कहाँ? जब आप गिर रहे होते हैं आप को नही पता चलता आप कितने नीचे गिर गए, इसी लिए शायद कोई भी संभलना अधिक ही लगता है, आप सोचते है आप बच गए, पर जो खो गया अंदर कहीं, खुद का कहीं उसे शायद बहुत बाद में ही जान पाते हैं या कभी नहीं? 

Friday, May 12, 2017

विस्तार का भ्रम

विस्तार का भ्रम बस है, 
सिमटा मैं भी हूँ 
कभी आधे बासी शब्दों 
में , कभी पुरानी आदत में।  

अंत की जो पंक्ति है 
उस तक नहीं पहुँच 
पाता, फिसल जाता 
हूँ फुर्सत में चुराए 
किसी एक पल में।  

ढूंढनी पड़ती है उस वक़्त 
कोई खोई हुई चाह, कोई 
बेतरतीब सा सपना।

मलिन,पर खोया हुआ
मन।  

Saturday, January 7, 2017

A desire for the new year

Sometimes it's good to slip in 
slow in the new time
lest the thin crust of new
breaks in the dissolving old

Everything in its place, nothing extra

An unedited time
to rearrange desires, 
the dusted shelves of habits, 
the rusting ruse of dreams,
the open cracks of past,
the unattended anticipations of the future, 
the fogged horizons of togetherness, 
the misty mornings of solitude, 
the rainy afternoons of memories, 
the windy evenings of temptation, 
the long nights of separation.


Slip in slow in the new time, 
like a faint rustle, 
without a trace, 
in an unsolved puzzle.  
Sprinkle silent winds to the roaring uncertainties.

Let the dust of the old settle, sail slow to your new sun.